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यह कितने आश्चर्य की बात है कि आज एक और तो लोग परमात्मा को ‘माता-पिता’ और ‘पतित-पावन’ मानते है और दूसरी और कहते है कि परमात्मा सर्व-व्यापक है, अर्थात वह तो ठीकर-पत्थर, सर्प, बिच्छू, वाराह, मगरमच्छ, चोर और डाकू सभी में है ! ओह, अपने परम प्यारे, परम पावन, परमपिता के बारे में यह कहना कि वह कुते में, बिल्ले में, सभी में है – यह कितनी बड़ी भूल है ! यह कितना बड़ा पाप है !! जो पिता हमे मुक्ति और जीवनमुक्ति की विरासत (जन्म-सिद्ध अधिकार) देता है, और हमे पतित से पावन बनाकर स्वर्ग का राज्य देता है, उसके लिए ऐसे शब्द कहना गोया कृतघ्न बनना ही तो है !!!यदि परमात्मा सर्वव्यापी होते तो उसके शिवलिंग रूप की पूजा क्यों होती ? यदि वह यत्र-तत्र-सर्वत्र होते तो वह ‘दिव्य जन्म’ कैसे लेते, मनुष्य उनके अवतरण के लिए उन्हें क्यों पुकारते और शिवरात्रि का त्यौहार क्यों मनाया जाता ? यदि परमात्मा सर्व-व्यापक होते तो वह गीता-ज्ञान कैसे देते और गीता में लिखे हुए उनके यह महावाक्य कैसे सत्य सिद्ध होते कि “मैं परम पुरुष (पुरुषोतम) हौं, मैं सूर्य और तारागण के प्रकाश की पहुँच से भी प्रे परमधाम का वासी हूँ, यह सृष्टि एक उल्टा वृक्ष है और मैं इसका बीज हूँ जो कि ऊपर रहता हूँ |”यह जो मान्यता है कि “परमात्मा सर्वव्यापी है” – इससे भक्ति, ज्ञान, योग इत्यादि सभी का खण्डन हो गया है क्योंकि यदि ज्योतिस्वरूप भगवान का कोई नाम और रूप ही न हो तो न उससे सम्बन्ध (योग) जोड़ा जा सकता है, न ही उनके प्रति स्नेह और भक्ति ही प्रगट की जा सकती है और न ही उनके नाम और कर्तव्यों की चर्चा ही हो सकती है जबकि ‘ज्ञान’ का तो अर्थ ही किसी के नाम, रूप, धाम, गुण, कर्म, स्वभाव, सम्बन्ध, उससे होने वाली प्राप्ति इत्यादि का परीच है | अत: परमात्मा को सर्वव्यापक मानने के कारण आज मनुष्य ‘मन्मनाभाव’ तथा ‘मामेकं शरणं व्रज’ की ईश्वराज्ञा पर नहीं चल सकते अर्थात बुद्धि में एक ज्योति स्वरूप परमपिता परमात्मा शिव की याद धारण नहीं कर सकते और उससे स्नेह सम्बन्ध नहीं जोड़ सकते बल्कि उनका मन भटकता रहता है | परमात्मा चैतन्य है, वह तो हमारे परमपिता है, पिता तो कभी सर्वव्यापी नहीं होता | अत: परमपिता परमात्मा को सर्वव्यापी मानने से ही सभी नर-नारी योग-भ्रष्ट और पतित हो गये है और उस परमपिता की पवित्रता-सुख-शान्ति रूपी बपौती (विरासत) से वंचित हो दुखी तथा अशान्त है |अत: स्पष्ट है कि भक्तों का यह जो कथन है कि – ‘परमात्मा तो घट-घट का वासी है’ इसका भी शब्दार्थ लेना ठीक नहीं है | वास्तव में ‘गत’ अथवा ‘हृदय’ को प्रेम एवं याद का स्थान माना गया है | द्वापर युग के शुरू के लोगों में ईश्वर-भक्ति अथवा प्रभु में आस्था एवं श्रद्धा बहुत थी | कोई विरला ही ऐसा व्यक्ति होता था जो परमात्मा को ना मानता हो | अत: उस समय भाव-विभोर भक्त यह ख दिया करते थे कि ईश्वर तो घट-घट वासी है अर्थात उसे तो सभी याद और प्यार करते है और सभी के मन में ईश्वर का चित्र बीएस रहा है | इन शब्दों का अर्थ यह लेना कि स्वयं ईश्वर ही सबके ह्रदयों में बस रहा है, भूल है |